-सत्ताचक्र गपशप-
सूत्रो के मुताबिक बीते कुछ माह में विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को कई बार फोन किया, जो बात हुई उसका लगभग सार -
म.गां.अं.हि.वि.वि. वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने 05 अप्रैल 2010 को आलोक तोमर को फोन किया । कहा- म.गां.अं.हि.वि.वि. में वान्ट निकला था, आपने अप्लाई नहीं किया। आलोक तोमर ने जबाब दिया- मैं आपके यहां नौकरी के लिए अप्लाई करूं, और आप मुझे नौकरी देंगे। मेरे ऐसे दिन तो नहीं आये हैं।
इस पर विभूति नारायण राय ने कहा- यदि मैं आपको नौकरी (म.गा.अं.हि.वि.वि. के दिल्ली सेंटर का प्रभारी पद) आफर करूं तो ।
अलोक का जबाब- आप आफर करेंगे तो भी तय तो मुझे करना है।
विभूति नारायण ने अपने असली मकसद पर आते हुए कहा- आप भी दुश्मनो के गुट में शामिल हो गये।
आलोक ने प्रतिप्रश्न के लहजे में पूछा- मतलब..। सही बात लिखना दुश्मनो के गुट में शामिल होना होता है।
विभूति- नहीं मेरा मतलब ये नहीं । आपको किसी ने सही ब्रीफ नहीं किया है । आप जब मिलेंगे तो डी ब्रीफ करूंगा तब सही बात समझेंगे।
इस पर आलोक ने कहा- ठीक है जब मिलेंगे तब बताइयेगा।
इसके पहले विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को 21 मार्च 2010 को दो बार फोन किया था। आलोक तोमर ने फोन नहीं उठाया। विभूति ने फोन 21 मार्च को उनके पोर्टल datelineindia.com व उनकी खबर छापने वाले अखबारों व पोर्टलों में निम्न खबर छपने के बाद किया था-
.....................................................................................................................................................
आइए… वर्धा में अंकित एक विभूति से भी मिलिए…
-आलोक तोमर
अपने नाम के पहले डॉक्टर लगाना किसको अच्छा नहीं लगता। मैं पहले दर्जे में एमए करने के बाद भी पीएचडी नहीं कर पाया क्योंकि रोजगार के गम ज्यादा थे। मगर पैसा ले कर तीन चार पीएचडी थीसिस मैंने भी लिखी हैं क्योंकि पैसे चाहिए था। वह मेहनत की कमाई थी और उनके आधार पर डॉक्टरेट पा कर कई मित्र विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं।
मगर इन दिनों गजब हो रहा है। विश्वविद्यालयों में ऐसे ऐसे चोर गुरु हैं जो इंटरनेट की कृपा से अध्याय के अध्याय उड़ा कर रातों रात किताब तैयार करते हैं और अंग्रेजी में अपना नाम तक ठीक से नहीं लिख पाने के बावजूद उनके खाते में अंग्रेजी की दर्जनों किताबें हैं। ऐसा ही एक कारनामा दुनिया के अकेले हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में हुआ। इस विश्वविद्यालय का नाम महात्मा गांधी के नाम पर है और इसका कुलपति बनने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के एक सबसे बड़े अधिकारी और अपने मित्र विभूति नारायण राय ने पुलिस से इस्तीफा दे दिया।
हिंदी विश्वविद्यालय में पत्रकारिता भी पढ़ाई जाती है। यहां पत्रकारिता विभाग के प्रमुख अनिल राय अंकित नाम के एक विद्वान हैं, जिन्होंने इंटरनेट से चोरी करके दर्जनों किताबें अपने नाम से छपवा ली है। जाहिर है कि वे अपने शिष्यों को बौद्धिक चोरी का अच्छा प्रशिक्षण दे सकते हैं। इसके पहले वे जौनपुर में पढ़ा रहे थे और वहां भी धड़ल्ले से चोरी कर रहे थे। नेटवर्किंग ऐसी कि रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय खुला, तो ये महोदय वहां भी मौजूद थे। फिर विभूति नारायण राय ने उन्हें वर्धा बुला कर अपने यहां पत्रकारिता विभाग का अध्यक्ष बना दिया। वे पहुंचे, इंटरव्यू दिया, चुने गये और जिस दिन लिफाफ खुला उसी दिन उन्होंने काम भी संभाल लिया। ऐसी भर्तियां तो युद्ध के दौरान भी सेना तक में नहीं होती। दिलचस्प बात यह है कि जिस तारीख को वे वर्धा में विभागाध्यक्ष के तौर पर काम कर रहे थे, उसी तारीख में रायपुर में भी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के रीडर थे।
अंकित प्रतिभाशाली हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। आखिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अधिकतम आठ लोगों को अपने अधीन पीएचडी करवाने की अनुमति हर प्रोफेसर को दी है। मगर अंकित चौदह लोगों को पीएचडी करवा रहे हैं। उनकी चोरी चकारी की कहानी जब एक टीवी चैनल पर, जिसका हिस्सा मैं भी हूं, प्रसारित हुई तो कोई दस साल बाद विभूति जी ने फोन किया। उन्होंने कहा कि जो दिखाया जा रहा है वह झूठ है और अगर एक भी दस्तावेज उन्हें मिल जाए, तो वे अंकित की एक मिनट में छुट्टी कर देंगे।
विभूति नारायण राय काफी सम्मानित साहित्यकार हैं। पुलिस में रह कर पुलिस के खिलाफ उपन्यास लिख चुके हैं और फिर भी निलंबित नहीं हुए। उनके लेखन और दोस्ती दोनों का मैंने हमेशा मान रखा है। विभूति से कहा कि वे चैनल के ऑफिस आ जाएं और पूरे रिकॉर्ड देख लें। चैनल के प्रधान संपादक राहुल देव से बात भी करवा दी। मगर विभूति नहीं पहुंचे। कुछ दिन बाद विश्वविद्यालय से चैनल में पत्र आया कि आपने जो कुछ दिखाया है, वह सच है तो इसके बारे में शपथ पत्र दीजिए। यह एक कुलपति की नहीं, पुलिस वाले की भाषा थी। आप जानते हैं कि पुलिस में अगर किसी को नहीं पकड़ना है, तो उसके बारे में एक के बाद एक सबूत मांगा जाता रहता है। अगर पकड़ना है, तो पहले हवालात में बंद कर दिया जाता है और फिर सबूत तैयार किये जाते हैं।
अनिल राय अंकित के खिलाफ कई किलोग्राम सबूत मौजूद है। विभूति भाई पढ़ने-लिखने वाले आदमी हैं और उनकी आत्मा जानती होगी कि असलियत क्या है। लेकिन उनके भीतर जो पुलिस वाला बैठा है, वह तो मुठभेड़ में भी सिर्फ आत्मरक्षा में गोली चलाता है, जिसमें कुछ मारे जाते हैं और कुछ अंधेरे का लाभ उठा कर फरार हो जाते हैं। विभूति नारायण राय अंकित को अंधेरे का लाभ दे रहे हैं। बहुत दबाव के बाद जांच बैठा दी गयी है, मगर जांच के लिए वाराणसी से अंकित के एक पुराने शुभचिंतक को बुलाया गया है और आप जानते हैं कि ऐसे में क्या होता हैं!
विभूति नारायण राय हिदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में वे गॉड फादर की तरह काम कर रहे हैं।
अनिल राय अंकित का जो होगा, सो होगा और उनसे पत्रकारिता पढ़ने वाली पीढ़ियों का भविष्य कैसा होगा, यह बाद की बात है लेकिन भारतीय पुलिस सेवा में एक संवेदनशील अधिकारी के तौर पर शिनाख्त रखने वाले विभूति नारायण राय एक स्थापित चोर की रक्षा में अपनी छवि और अस्तित्व को खतरे में क्यों डाल रहे हैं, यह समझ में नहीं आता।
वैसे अपने विभूति भाई खतरों के खिलाड़ी है। साहित्य में भी और जीवन में भी। बहुत साल पहले जब इलाहाबाद में पूर्ण कुंभ हुआ था तो विभूति कुंभ जिले के पुलिस अधीक्षक थे। कानून और व्यवस्था के अलावा उनका काम यह भी था कि मेला परिसर में नशीले पदार्थ न आएं और कोई भी मांसाहारी आहार नहीं लाया जाए। विभूति भाई ने बहुत कृपा कर के कुंभ परिसर में ही तंबुओं के बने अपने बंगले में मुझे ठहराया था और साहित्य की नगरी इलाहाबाद के कई नामी साहित्यकार रोज शाम नियमित तौर पर इस तंबू में जमा होते थे और शराब के लंबे दौरों के बाद मुर्गे पकाये जाते थे। आधी रात के बाद जब यह आतिथ्य संपन्न होता था, तो मोटर बोट में बैठ कर कुछ पुलिस वाले बोतलों और हड्डियों का विसर्जन संगम में कर आते थे।
बगल में तत्कालीन डीआईजी त्रिनाथ मिश्रा का तंबू वाला बंगला था। यह वे ही मिश्रा जी हैं, जो बाद में सीबीआई के डायरेक्टर बने। यह विभूति नारायण राय की बहादुरी की एक कहानी है, जिसमें मुजरिम के तौर पर मैं भी शरीक हूं। इसलिए मुझे हैरत नहीं होती कि अगर विभूति नारायण राय ने अनिल राय अंकित को बचाने का जेहादी रास्ता अपना ही लिया है, तो वे आखिरी दम तक कोशिश करेंगे। मगर विभूति भाई मित्र हैं इसलिए उन्हें बता देना अपना फर्ज है कि जेहादियों का आखिर में होता क्या है? अंकित पुराना चोर है और चोरी के लिए नया ठिकाना तलाश कर लेगा, मगर विभूति भाई आप नाहक शहीद हो जाएंगे।
सूत्रो के मुताबिक बीते कुछ माह में विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को कई बार फोन किया, जो बात हुई उसका लगभग सार -
म.गां.अं.हि.वि.वि. वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने 05 अप्रैल 2010 को आलोक तोमर को फोन किया । कहा- म.गां.अं.हि.वि.वि. में वान्ट निकला था, आपने अप्लाई नहीं किया। आलोक तोमर ने जबाब दिया- मैं आपके यहां नौकरी के लिए अप्लाई करूं, और आप मुझे नौकरी देंगे। मेरे ऐसे दिन तो नहीं आये हैं।
इस पर विभूति नारायण राय ने कहा- यदि मैं आपको नौकरी (म.गा.अं.हि.वि.वि. के दिल्ली सेंटर का प्रभारी पद) आफर करूं तो ।
अलोक का जबाब- आप आफर करेंगे तो भी तय तो मुझे करना है।
विभूति नारायण ने अपने असली मकसद पर आते हुए कहा- आप भी दुश्मनो के गुट में शामिल हो गये।
आलोक ने प्रतिप्रश्न के लहजे में पूछा- मतलब..। सही बात लिखना दुश्मनो के गुट में शामिल होना होता है।
विभूति- नहीं मेरा मतलब ये नहीं । आपको किसी ने सही ब्रीफ नहीं किया है । आप जब मिलेंगे तो डी ब्रीफ करूंगा तब सही बात समझेंगे।
इस पर आलोक ने कहा- ठीक है जब मिलेंगे तब बताइयेगा।
इसके पहले विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को 21 मार्च 2010 को दो बार फोन किया था। आलोक तोमर ने फोन नहीं उठाया। विभूति ने फोन 21 मार्च को उनके पोर्टल datelineindia.com व उनकी खबर छापने वाले अखबारों व पोर्टलों में निम्न खबर छपने के बाद किया था-
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आइए… वर्धा में अंकित एक विभूति से भी मिलिए…
-आलोक तोमर
अपने नाम के पहले डॉक्टर लगाना किसको अच्छा नहीं लगता। मैं पहले दर्जे में एमए करने के बाद भी पीएचडी नहीं कर पाया क्योंकि रोजगार के गम ज्यादा थे। मगर पैसा ले कर तीन चार पीएचडी थीसिस मैंने भी लिखी हैं क्योंकि पैसे चाहिए था। वह मेहनत की कमाई थी और उनके आधार पर डॉक्टरेट पा कर कई मित्र विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं।
मगर इन दिनों गजब हो रहा है। विश्वविद्यालयों में ऐसे ऐसे चोर गुरु हैं जो इंटरनेट की कृपा से अध्याय के अध्याय उड़ा कर रातों रात किताब तैयार करते हैं और अंग्रेजी में अपना नाम तक ठीक से नहीं लिख पाने के बावजूद उनके खाते में अंग्रेजी की दर्जनों किताबें हैं। ऐसा ही एक कारनामा दुनिया के अकेले हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में हुआ। इस विश्वविद्यालय का नाम महात्मा गांधी के नाम पर है और इसका कुलपति बनने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के एक सबसे बड़े अधिकारी और अपने मित्र विभूति नारायण राय ने पुलिस से इस्तीफा दे दिया।
हिंदी विश्वविद्यालय में पत्रकारिता भी पढ़ाई जाती है। यहां पत्रकारिता विभाग के प्रमुख अनिल राय अंकित नाम के एक विद्वान हैं, जिन्होंने इंटरनेट से चोरी करके दर्जनों किताबें अपने नाम से छपवा ली है। जाहिर है कि वे अपने शिष्यों को बौद्धिक चोरी का अच्छा प्रशिक्षण दे सकते हैं। इसके पहले वे जौनपुर में पढ़ा रहे थे और वहां भी धड़ल्ले से चोरी कर रहे थे। नेटवर्किंग ऐसी कि रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय खुला, तो ये महोदय वहां भी मौजूद थे। फिर विभूति नारायण राय ने उन्हें वर्धा बुला कर अपने यहां पत्रकारिता विभाग का अध्यक्ष बना दिया। वे पहुंचे, इंटरव्यू दिया, चुने गये और जिस दिन लिफाफ खुला उसी दिन उन्होंने काम भी संभाल लिया। ऐसी भर्तियां तो युद्ध के दौरान भी सेना तक में नहीं होती। दिलचस्प बात यह है कि जिस तारीख को वे वर्धा में विभागाध्यक्ष के तौर पर काम कर रहे थे, उसी तारीख में रायपुर में भी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के रीडर थे।
अंकित प्रतिभाशाली हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। आखिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अधिकतम आठ लोगों को अपने अधीन पीएचडी करवाने की अनुमति हर प्रोफेसर को दी है। मगर अंकित चौदह लोगों को पीएचडी करवा रहे हैं। उनकी चोरी चकारी की कहानी जब एक टीवी चैनल पर, जिसका हिस्सा मैं भी हूं, प्रसारित हुई तो कोई दस साल बाद विभूति जी ने फोन किया। उन्होंने कहा कि जो दिखाया जा रहा है वह झूठ है और अगर एक भी दस्तावेज उन्हें मिल जाए, तो वे अंकित की एक मिनट में छुट्टी कर देंगे।
विभूति नारायण राय काफी सम्मानित साहित्यकार हैं। पुलिस में रह कर पुलिस के खिलाफ उपन्यास लिख चुके हैं और फिर भी निलंबित नहीं हुए। उनके लेखन और दोस्ती दोनों का मैंने हमेशा मान रखा है। विभूति से कहा कि वे चैनल के ऑफिस आ जाएं और पूरे रिकॉर्ड देख लें। चैनल के प्रधान संपादक राहुल देव से बात भी करवा दी। मगर विभूति नहीं पहुंचे। कुछ दिन बाद विश्वविद्यालय से चैनल में पत्र आया कि आपने जो कुछ दिखाया है, वह सच है तो इसके बारे में शपथ पत्र दीजिए। यह एक कुलपति की नहीं, पुलिस वाले की भाषा थी। आप जानते हैं कि पुलिस में अगर किसी को नहीं पकड़ना है, तो उसके बारे में एक के बाद एक सबूत मांगा जाता रहता है। अगर पकड़ना है, तो पहले हवालात में बंद कर दिया जाता है और फिर सबूत तैयार किये जाते हैं।
अनिल राय अंकित के खिलाफ कई किलोग्राम सबूत मौजूद है। विभूति भाई पढ़ने-लिखने वाले आदमी हैं और उनकी आत्मा जानती होगी कि असलियत क्या है। लेकिन उनके भीतर जो पुलिस वाला बैठा है, वह तो मुठभेड़ में भी सिर्फ आत्मरक्षा में गोली चलाता है, जिसमें कुछ मारे जाते हैं और कुछ अंधेरे का लाभ उठा कर फरार हो जाते हैं। विभूति नारायण राय अंकित को अंधेरे का लाभ दे रहे हैं। बहुत दबाव के बाद जांच बैठा दी गयी है, मगर जांच के लिए वाराणसी से अंकित के एक पुराने शुभचिंतक को बुलाया गया है और आप जानते हैं कि ऐसे में क्या होता हैं!
विभूति नारायण राय हिदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में वे गॉड फादर की तरह काम कर रहे हैं।
अनिल राय अंकित का जो होगा, सो होगा और उनसे पत्रकारिता पढ़ने वाली पीढ़ियों का भविष्य कैसा होगा, यह बाद की बात है लेकिन भारतीय पुलिस सेवा में एक संवेदनशील अधिकारी के तौर पर शिनाख्त रखने वाले विभूति नारायण राय एक स्थापित चोर की रक्षा में अपनी छवि और अस्तित्व को खतरे में क्यों डाल रहे हैं, यह समझ में नहीं आता।
वैसे अपने विभूति भाई खतरों के खिलाड़ी है। साहित्य में भी और जीवन में भी। बहुत साल पहले जब इलाहाबाद में पूर्ण कुंभ हुआ था तो विभूति कुंभ जिले के पुलिस अधीक्षक थे। कानून और व्यवस्था के अलावा उनका काम यह भी था कि मेला परिसर में नशीले पदार्थ न आएं और कोई भी मांसाहारी आहार नहीं लाया जाए। विभूति भाई ने बहुत कृपा कर के कुंभ परिसर में ही तंबुओं के बने अपने बंगले में मुझे ठहराया था और साहित्य की नगरी इलाहाबाद के कई नामी साहित्यकार रोज शाम नियमित तौर पर इस तंबू में जमा होते थे और शराब के लंबे दौरों के बाद मुर्गे पकाये जाते थे। आधी रात के बाद जब यह आतिथ्य संपन्न होता था, तो मोटर बोट में बैठ कर कुछ पुलिस वाले बोतलों और हड्डियों का विसर्जन संगम में कर आते थे।
बगल में तत्कालीन डीआईजी त्रिनाथ मिश्रा का तंबू वाला बंगला था। यह वे ही मिश्रा जी हैं, जो बाद में सीबीआई के डायरेक्टर बने। यह विभूति नारायण राय की बहादुरी की एक कहानी है, जिसमें मुजरिम के तौर पर मैं भी शरीक हूं। इसलिए मुझे हैरत नहीं होती कि अगर विभूति नारायण राय ने अनिल राय अंकित को बचाने का जेहादी रास्ता अपना ही लिया है, तो वे आखिरी दम तक कोशिश करेंगे। मगर विभूति भाई मित्र हैं इसलिए उन्हें बता देना अपना फर्ज है कि जेहादियों का आखिर में होता क्या है? अंकित पुराना चोर है और चोरी के लिए नया ठिकाना तलाश कर लेगा, मगर विभूति भाई आप नाहक शहीद हो जाएंगे।
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उक्त खबर छपने के बाद विभूति ने आलोक से बात करने की कोशिश की थी। बात नहीं हुई ।विभूति ने फिर 05अप्रैल2010 को उनको फोन किया । तब आलोक ने फोन उठा लिया था, बात कर ली थी।
इसके पहले विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को 23 फरवरी 2010 को फोन किया था। विभूति ने उस दिन आलोक के पोर्टल , अन्य पोर्टल व अखबारों में उनकी निम्न खबर छपने के बाद फोन किया था-
इसके पहले विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को 23 फरवरी 2010 को फोन किया था। विभूति ने उस दिन आलोक के पोर्टल , अन्य पोर्टल व अखबारों में उनकी निम्न खबर छपने के बाद फोन किया था-
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सीएनईबी और राहुल देव का कसूर
-आलोक तोमर
वाराणसी के एक प्रोफेसर ने दिल्ली के टीवी चैनल सीएनईबी और इसके प्रधान संपादक राहुल देव के खिलाफ ब्लैक मेल करने का आरोप लगाया है। अदालत शिकायत की जांच कर रही है और अगर जांच में कोई तत्व पाया गया तो ही राहुल देव और चैनल पर चोर गुरु नाम का धारावाहिक शोध रिपोर्टिंग वाला कार्यक्रम बनाने वाले उनके साथियों संजय देव और कृष्ण मोहन सिंह को तलब किया जाएगा।
सीएनईबी की शोध दरअसल भारतीय शिक्षा जगत में शोध के नाम पर हो रही प्रचंड धोखाधड़ी के खिलाफ अभियान के तौर पर चल रही है मगर मीडिया में विस्फोट करने का दावा करने वाले भाई लोगों का कहना है कि ब्लैकमेलिंग की शिकायत के बाद चैनल के संचालकों ने यह शो बंद करवा दिया हैं। पहली बात तो यह कि यह शो बंद नहीं हुआ है। दूसरी बात यह कि ब्लैकमेलिंग की कोई भी शिकायत देश के किसी भी पुलिस थाने में सीएनईबी या इसके किसी पत्रकार के खिलाफ दर्ज नहीं की गई है। उल्टे चोर गुरु में जो पीएचडी के नाम पर चोरी के खेल बताए गए हैं उनके आधार पर कई विश्वविद्यालयों में जांच शुरू हो चुकी है। इन चोर गुरुओं को नोटिस दिए गए हैं और जवाब मांगा गया है।
पीएचडी और नई किताबों के नाम पर हो रही यह चोरी शर्मनाक भी है और भारतीय शिक्षा व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने वाली भी। जब तक यह शो सामने नहीं आया था तब तक कोई नहीं जानता था कि इस देश में ऐसे ऐसे प्रतिभाशाली प्रोफेसर मौजूद हैं जो एक साल में छह छह किताबें अंग्रेजी में लिख सकते हैं और भले ही खुद अपने नाम से एक आवेदन भी शुद्व अंग्रेजी में नहीं लिख सकते हो मगर मोटी मोटी किताबें उनके नाम से छपी हुई हैं और विश्वविद्यालयों में खरीदी गई है।
चोर गुरु पीएचडी के नाम पर होने वाली सरेआम चोरी का पर्दाफाश करने की एक सोची समझी मुहिम है और आसान नहीं है। इन चोरो की किताब ले कर इंटरनेट पर बैठना पड़ता है, उनमें से वाक्य और पैरे सर्च कर के उनके मूल स्रोत का पता लगाना होता है और जब सबूत काफी जमा हो जाते हैं तो न सिर्फ टीवी पर दिखाए जाते हैं बल्कि संबंधित विश्वविद्यालयों को विधिवत इसकी जानकारी दी जाती है।
वाराणसी में कोई अनिल उपाध्याय है जिन्होंने सीएनईबी पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया है। ये उपाध्याय साहब और वाराणसी के ही भूतपूर्व पत्रकार और अब प्रोफेसर राम मोहन पाठक की कृपा से दुनिया के अकेले हिंदी विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष के तौर पर लगभग लाख रुपए महीने का वेतन पाने वाले एक अनिल अंकित नाम के सज्जन हैं जो सरेआम चोरी यानी बौद्विक संपदा की लूट के अभियुक्त हैं।
राम मोहन पाठक पर इल्जाम है कि उन्होंने नौकरी के लिए अपने जीवन परिचय में गलत और बढ़ा चढ़ा कर जानकारियां दीं। उन पर मूर्ति चोरी का भी आरोप है। अनिल उपाध्याय का अतीत भी बहुत उज्जवल नहीं हैं और उसके प्रमाण सीएनईबी में उपलब्ध है। इन सब भाई लोगों से उनका पक्ष जानने के लिए चैनल ने संपर्क किया था। कई तो सामने नहीं आए और अनिल अंकित ने तो वर्धा में गई टीवी चैनल की टीम को अपने छात्रों से पिटवाने तक की धमकी दे डाली। क्या अनिल उपाध्याय सबूताें के सामने एक पल भी खड़े रह पाएंगे?
वे विदेशी किताबें मौजूद हैं जिनमें कॉमा तक बदले बगैर सीधे अपने नाम से उनकी सामग्री इस्तेमाल कर ली गई है। प्रचंड मूर्खता तो यह है कि शोध हुई यूरोप के किसी देश में और उसे भारत के संदर्भ में बगैर जगहों, संस्थाओं और नामों को बदले सीधे सीधे चिपका दिया गया। एक एक चीज का सबूत है। विस्फोट करने वालों को पता नहीं कहां से यह सुपर खबर मिली है कि चैनल के मालिकों ने इस कार्यक्रम का प्रसारण बंद करवा दिया है। कार्यक्रम बन रहा है, शोध हो रही है और जितने चोर गुरुओं का हो सकता है, कबाड़ा किया जाएगा क्योंकि वे हमारी शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश पुलिस के बड़े अधिकारी रहे साहित्यकार विभूति नारायण राय अनिल अंकित को नियुक्त करने वाले व्यक्ति हैं। आज से तीन महीने पहले उन्होंने फोन किया था कि आप लोग जो यह दिखा रहे हैं इसके बारे में एक पैरा का सबूत दे दीजिए, मैं दोषी को एक मिनट में बाहर कर दूंगा। उन्हें बाइज्जत चैनल में बुलाया गया, कहा गया कि आप आ कर खुद पूरी शोध और टेप देख लीजिए। वे तैयार भी हो गए। उन्होंने प्रधान संपादक राहुल देव से बात भी कर ली मगर चैनल नहीं पहुंचे।
अब जब बहुत दबाव पड़ा तो अंकित की शोध की जांच करने के लिए उन्होंने एक सदस्यीय जांच कमेटी बनाई और उसके लिए भी वाराणसी से प्रोफेसर सुरेंद्र सिंह कुशवाह को नियुक्त किया और आदेश में यह कही नहीं कहा गया कि जांच कितने समय में पूरी करनी है। हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा शायद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नहीं, भारतीय दंड विधान के आधार पर चलता है।
अनिल अंकित का इंटरव्यू ले कर उसे प्रोफेसर बनाने वाले पैनल में राम मोहन पाठक भी थे जिन पर खुद नकली पीएचडी लिखने, फर्जी कागज बना कर मंदिर की जमीन हड़प करने और काशी विद्यापीठ में किताबों की खरीद में लाखों रुपए का घोटाला करने का आरोप है। आश्चर्य नहीं कि ब्लैकमेलिंग का आरोप भी वाराणसी से आया है। जिस एक और चौर गुरु प्रेम चंद्र पातंजलि ने पूर्वाचल विश्वविद्यालय जौनपुर में कुलपति रहने के दौरान अनिल अंकित को पहले ठेके पर पढ़ाने का काम दिया और फिर पत्रकारिता विभाग का प्रमुख बना दिया। उन्हें इसी हिंदी विश्वविद्यालय के अदृश्य दिल्ली केंद्र में मोटे वेतन पर ओएसडी बनाया गया।
बाद में जब मानव संसाधन मंत्रालय में शिकायत हुई तो पातंजलि की नौकरी चली गई। अंकित की जांच करने वाले सुरेंद्र सिंह कुशवाह जब काशी विद्यापीठ के कुलपति थे तो इन्हीं पातंजलि को बार बार विशेषज्ञ के तौर पर बुलाते थे। उस समय अनिल उपाध्याय पत्रकारिता विभाग के प्रमुख थे और काशी विद्यापीठ शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी। इस पूरे घपले का वाराणसी कनेक्शन साफ नजर आ रहा है और पूरे जीवन पुलिस में रह कर कानून की रक्षा करने वाले विभूति नारायण राय शायद अंकित के प्रेम में इतने अंधे हो गए हैं कि उन्हें सामने रखे सबूत नजर नहीं आते और जांच कमेटी बैठानी पड़ती है।
एक और प्रोफेसर अनिल चमड़िया पर इस तरह का कोई आरोप नहीं था और उनकी एक सजग सामाजिक बुद्विजीवी के तौर पर ख्याति भी है, मगर उन्हें हड़बड़ी में बुलाई गई एक बैठक जिसमें ज्यादातर सदस्य गैर हाजिर थे, के बाद बर्खास्त कर दिया गया। सीएनईबी को कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी मुहिम जारी है और लड़ाई इस पार और उस पार की है। यह लड़ाई समाज के पक्ष में हैं।
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23फरवरी 2010 को विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को फोन किया तो जो पहला वाक्य कहा वह था- आपको तो अपने वि.वि. के दिल्ली सेंटर का प्रभारी बनाने को सोच रहा हूं, आप भी उस गुट में शामिल हो गये ?
आलोक तोमर – किस गुट में ?
विभूति- आप जो लिखे हैं ।
आलोक- क्या सही बात लिखना गुट में शामिल होना है। और जब कोई CNEB NEWS CHANNEL के कार्यक्रम पर ,उसे बनाने वालों पर गलत आरोप लगायेगा तो मैं कैसे चुप रहूंगा । मैं उस संस्था से जुड़ा हुआ हूं। उस कार्यक्रम के बारे में अच्छी तरह जानता हूं।
विभूति- ऐसी बात नहीं है...।
आलोक- आप नकल करके किताबें लिखने वाले चोर अनिल राय अंकित को बदनामी की हद तक बचाने में जुटे हुए हैं। उसको बचाने के लिए तरह-तरह के तर्क गढ़ रहे हैं, तरह-तरह के उपक्रम कर रहे हैं । जबकि पत्रकारीय कर्म, लेखन, शोध,पढ़ाने हर मामले में उत्तम अनिल चमड़िया को आपने अपना अहं तुष्ट करने के लिए एक्जक्यूटिव कमेटी के तथाकथित निर्णय के बहाने निकाल दिया।
विभूति- आप तो पुलिस की भाषा बोल रहे हैं।
आलोक- जो जोभाषा समझता है वह भाषा बोलनी पड़ती है।
विभूति- (बात बदलते हुए) आइये मिलते हैं , बैठकर बात करते हैं।
आलोक – आपके पास जब समय हो तो मिलिएगा , बैठा जायेगा।
सीएनईबी और राहुल देव का कसूर
-आलोक तोमर
वाराणसी के एक प्रोफेसर ने दिल्ली के टीवी चैनल सीएनईबी और इसके प्रधान संपादक राहुल देव के खिलाफ ब्लैक मेल करने का आरोप लगाया है। अदालत शिकायत की जांच कर रही है और अगर जांच में कोई तत्व पाया गया तो ही राहुल देव और चैनल पर चोर गुरु नाम का धारावाहिक शोध रिपोर्टिंग वाला कार्यक्रम बनाने वाले उनके साथियों संजय देव और कृष्ण मोहन सिंह को तलब किया जाएगा।
सीएनईबी की शोध दरअसल भारतीय शिक्षा जगत में शोध के नाम पर हो रही प्रचंड धोखाधड़ी के खिलाफ अभियान के तौर पर चल रही है मगर मीडिया में विस्फोट करने का दावा करने वाले भाई लोगों का कहना है कि ब्लैकमेलिंग की शिकायत के बाद चैनल के संचालकों ने यह शो बंद करवा दिया हैं। पहली बात तो यह कि यह शो बंद नहीं हुआ है। दूसरी बात यह कि ब्लैकमेलिंग की कोई भी शिकायत देश के किसी भी पुलिस थाने में सीएनईबी या इसके किसी पत्रकार के खिलाफ दर्ज नहीं की गई है। उल्टे चोर गुरु में जो पीएचडी के नाम पर चोरी के खेल बताए गए हैं उनके आधार पर कई विश्वविद्यालयों में जांच शुरू हो चुकी है। इन चोर गुरुओं को नोटिस दिए गए हैं और जवाब मांगा गया है।
पीएचडी और नई किताबों के नाम पर हो रही यह चोरी शर्मनाक भी है और भारतीय शिक्षा व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने वाली भी। जब तक यह शो सामने नहीं आया था तब तक कोई नहीं जानता था कि इस देश में ऐसे ऐसे प्रतिभाशाली प्रोफेसर मौजूद हैं जो एक साल में छह छह किताबें अंग्रेजी में लिख सकते हैं और भले ही खुद अपने नाम से एक आवेदन भी शुद्व अंग्रेजी में नहीं लिख सकते हो मगर मोटी मोटी किताबें उनके नाम से छपी हुई हैं और विश्वविद्यालयों में खरीदी गई है।
चोर गुरु पीएचडी के नाम पर होने वाली सरेआम चोरी का पर्दाफाश करने की एक सोची समझी मुहिम है और आसान नहीं है। इन चोरो की किताब ले कर इंटरनेट पर बैठना पड़ता है, उनमें से वाक्य और पैरे सर्च कर के उनके मूल स्रोत का पता लगाना होता है और जब सबूत काफी जमा हो जाते हैं तो न सिर्फ टीवी पर दिखाए जाते हैं बल्कि संबंधित विश्वविद्यालयों को विधिवत इसकी जानकारी दी जाती है।
वाराणसी में कोई अनिल उपाध्याय है जिन्होंने सीएनईबी पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया है। ये उपाध्याय साहब और वाराणसी के ही भूतपूर्व पत्रकार और अब प्रोफेसर राम मोहन पाठक की कृपा से दुनिया के अकेले हिंदी विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष के तौर पर लगभग लाख रुपए महीने का वेतन पाने वाले एक अनिल अंकित नाम के सज्जन हैं जो सरेआम चोरी यानी बौद्विक संपदा की लूट के अभियुक्त हैं।
राम मोहन पाठक पर इल्जाम है कि उन्होंने नौकरी के लिए अपने जीवन परिचय में गलत और बढ़ा चढ़ा कर जानकारियां दीं। उन पर मूर्ति चोरी का भी आरोप है। अनिल उपाध्याय का अतीत भी बहुत उज्जवल नहीं हैं और उसके प्रमाण सीएनईबी में उपलब्ध है। इन सब भाई लोगों से उनका पक्ष जानने के लिए चैनल ने संपर्क किया था। कई तो सामने नहीं आए और अनिल अंकित ने तो वर्धा में गई टीवी चैनल की टीम को अपने छात्रों से पिटवाने तक की धमकी दे डाली। क्या अनिल उपाध्याय सबूताें के सामने एक पल भी खड़े रह पाएंगे?
वे विदेशी किताबें मौजूद हैं जिनमें कॉमा तक बदले बगैर सीधे अपने नाम से उनकी सामग्री इस्तेमाल कर ली गई है। प्रचंड मूर्खता तो यह है कि शोध हुई यूरोप के किसी देश में और उसे भारत के संदर्भ में बगैर जगहों, संस्थाओं और नामों को बदले सीधे सीधे चिपका दिया गया। एक एक चीज का सबूत है। विस्फोट करने वालों को पता नहीं कहां से यह सुपर खबर मिली है कि चैनल के मालिकों ने इस कार्यक्रम का प्रसारण बंद करवा दिया है। कार्यक्रम बन रहा है, शोध हो रही है और जितने चोर गुरुओं का हो सकता है, कबाड़ा किया जाएगा क्योंकि वे हमारी शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश पुलिस के बड़े अधिकारी रहे साहित्यकार विभूति नारायण राय अनिल अंकित को नियुक्त करने वाले व्यक्ति हैं। आज से तीन महीने पहले उन्होंने फोन किया था कि आप लोग जो यह दिखा रहे हैं इसके बारे में एक पैरा का सबूत दे दीजिए, मैं दोषी को एक मिनट में बाहर कर दूंगा। उन्हें बाइज्जत चैनल में बुलाया गया, कहा गया कि आप आ कर खुद पूरी शोध और टेप देख लीजिए। वे तैयार भी हो गए। उन्होंने प्रधान संपादक राहुल देव से बात भी कर ली मगर चैनल नहीं पहुंचे।
अब जब बहुत दबाव पड़ा तो अंकित की शोध की जांच करने के लिए उन्होंने एक सदस्यीय जांच कमेटी बनाई और उसके लिए भी वाराणसी से प्रोफेसर सुरेंद्र सिंह कुशवाह को नियुक्त किया और आदेश में यह कही नहीं कहा गया कि जांच कितने समय में पूरी करनी है। हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा शायद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नहीं, भारतीय दंड विधान के आधार पर चलता है।
अनिल अंकित का इंटरव्यू ले कर उसे प्रोफेसर बनाने वाले पैनल में राम मोहन पाठक भी थे जिन पर खुद नकली पीएचडी लिखने, फर्जी कागज बना कर मंदिर की जमीन हड़प करने और काशी विद्यापीठ में किताबों की खरीद में लाखों रुपए का घोटाला करने का आरोप है। आश्चर्य नहीं कि ब्लैकमेलिंग का आरोप भी वाराणसी से आया है। जिस एक और चौर गुरु प्रेम चंद्र पातंजलि ने पूर्वाचल विश्वविद्यालय जौनपुर में कुलपति रहने के दौरान अनिल अंकित को पहले ठेके पर पढ़ाने का काम दिया और फिर पत्रकारिता विभाग का प्रमुख बना दिया। उन्हें इसी हिंदी विश्वविद्यालय के अदृश्य दिल्ली केंद्र में मोटे वेतन पर ओएसडी बनाया गया।
बाद में जब मानव संसाधन मंत्रालय में शिकायत हुई तो पातंजलि की नौकरी चली गई। अंकित की जांच करने वाले सुरेंद्र सिंह कुशवाह जब काशी विद्यापीठ के कुलपति थे तो इन्हीं पातंजलि को बार बार विशेषज्ञ के तौर पर बुलाते थे। उस समय अनिल उपाध्याय पत्रकारिता विभाग के प्रमुख थे और काशी विद्यापीठ शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी। इस पूरे घपले का वाराणसी कनेक्शन साफ नजर आ रहा है और पूरे जीवन पुलिस में रह कर कानून की रक्षा करने वाले विभूति नारायण राय शायद अंकित के प्रेम में इतने अंधे हो गए हैं कि उन्हें सामने रखे सबूत नजर नहीं आते और जांच कमेटी बैठानी पड़ती है।
एक और प्रोफेसर अनिल चमड़िया पर इस तरह का कोई आरोप नहीं था और उनकी एक सजग सामाजिक बुद्विजीवी के तौर पर ख्याति भी है, मगर उन्हें हड़बड़ी में बुलाई गई एक बैठक जिसमें ज्यादातर सदस्य गैर हाजिर थे, के बाद बर्खास्त कर दिया गया। सीएनईबी को कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी मुहिम जारी है और लड़ाई इस पार और उस पार की है। यह लड़ाई समाज के पक्ष में हैं।
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23फरवरी 2010 को विभूति नारायण राय ने आलोक तोमर को फोन किया तो जो पहला वाक्य कहा वह था- आपको तो अपने वि.वि. के दिल्ली सेंटर का प्रभारी बनाने को सोच रहा हूं, आप भी उस गुट में शामिल हो गये ?
आलोक तोमर – किस गुट में ?
विभूति- आप जो लिखे हैं ।
आलोक- क्या सही बात लिखना गुट में शामिल होना है। और जब कोई CNEB NEWS CHANNEL के कार्यक्रम पर ,उसे बनाने वालों पर गलत आरोप लगायेगा तो मैं कैसे चुप रहूंगा । मैं उस संस्था से जुड़ा हुआ हूं। उस कार्यक्रम के बारे में अच्छी तरह जानता हूं।
विभूति- ऐसी बात नहीं है...।
आलोक- आप नकल करके किताबें लिखने वाले चोर अनिल राय अंकित को बदनामी की हद तक बचाने में जुटे हुए हैं। उसको बचाने के लिए तरह-तरह के तर्क गढ़ रहे हैं, तरह-तरह के उपक्रम कर रहे हैं । जबकि पत्रकारीय कर्म, लेखन, शोध,पढ़ाने हर मामले में उत्तम अनिल चमड़िया को आपने अपना अहं तुष्ट करने के लिए एक्जक्यूटिव कमेटी के तथाकथित निर्णय के बहाने निकाल दिया।
विभूति- आप तो पुलिस की भाषा बोल रहे हैं।
आलोक- जो जोभाषा समझता है वह भाषा बोलनी पड़ती है।
विभूति- (बात बदलते हुए) आइये मिलते हैं , बैठकर बात करते हैं।
आलोक – आपके पास जब समय हो तो मिलिएगा , बैठा जायेगा।
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